घटोत्कच और अश्वत्थामा के बीच बेहतर योद्धा कौन था?


महाभारत द्रोण पर्व मेंं घटोत्कचवध पर्व के अंतर्गत 156वें अध्याय मेंं घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध तथा अंजनपर्वा के वध का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है


बाकी आप खुद तय करें !
संजय कहते हैं- राजन! द्रोणपुत्र अश्वत्थामा सोमदत्तकुमार भूरिश्रवा के वध से अत्यन्त कुपित हो उठा था। उसने युद्धस्थल में सात्यकि को देखकर उनके वध का दृढ़ निश्‍चय करके उन पर आक्रमण किया। अश्वत्थामा को शिनिपौत्र के रथ की ओर जाते देख अत्यन्त कुपित हुए भीमसेन के पुत्र घटोत्कच ने अपने उस शत्रु को रोका।
घटोत्कच की अद्भुत शोभा
घटोत्कच जिस विशाल रथ पर बैठकर आया था, वह काले लोहे का बना हुआ और अत्यन्त भयंकर था। उसके ऊपर रीछ की खाल मढ़ी हुई थी। उसके भीतरी भाग की लम्बाई-चौड़ाई तीस नल्व (बारह हजार हाथ) थी। उसमें यन्त्र और कवच रखे हुए थे। चलते समय उससे मेघों की भारी घटा के समान गम्भीर शब्द होता था। उसमें हाथी-जैसे विशालकाय वाहन जुते हुए थे, जो वास्तव में न घोड़े थे और न हाथी। उस रथ की ध्वजा का डंडा बहुत ऊँचा था। वह ध्वज पंख और पंजे फैलाकर आंखें फाड़-फाड़कर देखने और कूजने वाले एक गृघ्रराज से सुशोभित था। उसकी पताका खून से भीगी हुई थी और उस रथ को आंतों की माला से विभूषित किया गया था। ऐसे आठ पहियों वाले विशाल रथ पर बैठा हुआ घटोत्कच भयंकर रूपवाले राक्षसों की एक अक्षौहिणी सेना से घिरा हुआ था। उस समस्त सेना ने अपने हाथों में शूल, मुद्गर, पर्वत-शिखर और वृक्ष ले रखे थे। प्रलयकाल में दण्डधारी यमराज के समान विशाल धनुष उठाये घटोत्कच को देखकर समस्त राजा व्यथित हो उठे।[1] वह देखने में पर्वत-शिखर के समान जान पड़ता था। उसका रूप भयानक होने के कारण वह सब को भयंकर प्रतीत होता था। उसका मुख यों ही बड़ा भीषण था; किंतु दाढ़ों के कारण और भी विकराल हो उठा था। उसके कान कील या खूंटे के समान जान पड़ते थे। ठोढ़ी बहुत बड़ी थी। बाल ऊपर की ओर उठे हुए थे। आंखें डरावनी थी। मुख आग के समान प्रज्वलित था, पेट भीतर की ओर धंसा हुआ था। उसके गले का छेद बहुत बड़े गडढे के समान जान पड़ता था। सिर के बाल किरीट से ढके हुए थे। वह मुंह बाये हुए यमराज के समान समस्त प्राणियों के मन में त्रास उत्पन्न करने वाला था।
घटोत्कच को देखकर कौरव-सेना का भयभीत होना
शत्रुओं को क्षुब्ध कर देने वाले प्रज्वलित अग्नि के समान राक्षसराज घटोत्कच को विशाल धनुष उठाये आते देख आपके पुत्र की सेना भय से पीड़ित एवं क्षुब्ध हो उठी, मानो वायु से विक्षुब्ध हुई गंगा में भयानक भंवरें और ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थी। घटोत्कच के द्वारा किये हुए सिंहनाद से भयभीत हो हाथियों के पेशाब झड़ने लगे और मनुष्य भी अत्यन्त व्यथित हो उठे। तदनन्तर उस रणभूमि [3]में चारों और संध्याकाल से ही अधिक बलवान हुए राक्षसों द्वारा की हुई पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी। लोहे के चक्र, भुशुण्डी, प्रास, तोमर, शूल, शतघ्नी और पट्टिश आदि अस्त्र अविराम गति से गिरने लगे। उस अत्यन्त भयंकर और उस संग्राम को देखकर समस्त नरेश, आपके पुत्र और कर्ण- ये सभी पीड़ित हो सम्पूर्ण दिशाओं में भाग गये।
घटोत्कच और अश्वत्थामा का युद्ध
उस समय वहाँ अपने अस्त्र बल पर अभिमान करने वाला एकमात्र द्रोणकुमार स्वाभिमानी अश्वत्थामा तनिक भी व्यथित नहीं हुआ। उसने घटोत्कच की रची हुई माया अपने बाणों द्वारा नष्ट कर दी। माया नष्ट हो जाने पर अमर्ष में भरे हुए घटोत्कच ने बड़े भयंकर बाण छोड़े। वे सभी बाण अश्वत्थामा के शरीर में घुस गये। जैसे क्रोधातुर सर्प बड़े वेग से बांबी में घुसते हैं, उसी प्रकार शिला पर तेज किये हुए वे सुवर्णमय पंखवाले शीघ्रगामी बाण कृपीकुमार को विदीर्ण करके खून से लथपथ हो धरती में घुस गये। इससे अश्वत्थामा का क्रोध बहुत बढ़ गया। फिर तो शीघ्रता पूर्वक हाथ चलाने वाले उस प्रतापी वीर ने क्रोधी घटोत्कच को दस बाणों से घायल कर दिया। द्रोणपुत्र के द्वारा मर्मस्थानों में गहरी चोट लगने के कारण घटोत्कच अत्यन्त व्यथित हो उठा और उसने एक ऐसा चक्र हाथ में लिया; जिसमें एक लाख अरे थे। उसके प्रान्तभाग में छुरे लगे हुए थे। मणियों तथा हीरों से विभूषित वह चक्र प्रातःकाल के सूर्य के समान जान पड़ता था। भीमसेन कुमार ने अश्वत्थामा का वध करने की इच्छा से वह चक्र उसके ऊपर चला दिया, परंतु अश्वत्थामा ने अपने बाणों द्वारा बड़े वेग से आते हुए देख उस चक्र को दूर फेंक दिया। वह भाग्यहीन के संकल्प (मनोरथ) की भाँति व्यर्थ होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। तदनन्तर अपने चक्र को धरती पर गिराया हुआ देख घटोत्कच ने अपने बाणों की वर्षा से अश्वत्थामा को उसी प्रकार ढक दिया, जैसे राहू सूर्य को आच्छादित कर देता है।
अश्वत्थामा द्वारा अंजनपर्वा का वध
घटोत्कच के तेजस्वी पुत्र अंजनपर्वा ने, जो कटे हुए कोयले के ढेर के समान काला था; अपनी ओर आते हुए अश्वत्थामा को उसी प्रकार रोक दिया, जैसे गिरिराज हिमालय आंधी को रोक देता हैं।
भीमसेन के पौत्र अंजनपर्वा के बाणों से आच्छादित हुआ अश्वत्थामा मेघ की जलधारा से आवृत हुए मेरु पर्वत के समान सुशोभित हो रहा था। रुद्र, विष्णु तथा इन्द्र के समान पराक्रमी अश्वत्थामा के मन में तनिक भी घबराहट नहीं हुई। उसने एक बाण से अंजनपर्वा की ध्वजा काट डाली। फिर दो बाणों से उसके दो सारथियों को, तीन से त्रि‍वेणु को, एक से धनुष को और चार से चारों घोड़ों को काट डाला। तत्पश्‍चात रथहीन हुए राक्षसपुत्र के हाथ से उठे हुए सुवर्ण-विन्दुओं से व्याप्त खंड को उसने एक तीखे बाण से मारकर उसके दो टूकड़े कर दिये।
राजन! तब घटोत्कच पुत्र ने तुरंत ही सोने के अंगद से विभूषित गदा घुमाकर अश्वत्थामा पर दे मारी, परंतु अश्वत्थामा बाणों से आहत होकर वह भी पृथ्वी पर गिर पड़ी। तब आकाश में उछलकर प्रलयकाल के मेघ की भाँति गर्जना करते हुए अंजनपर्वा ने आकाश से वृक्षों की वर्षा आरम्भ कर दी। तदनन्तर द्रोणपुत्र ने आकाश में स्थित हुए मायाधारी घटोत्कच कुमार को अपने बाणों द्वारा उसी तरह घायल कर दिया, जैसे सूर्य किरणों द्वारा मेघों की घटा को गला देते हैं। इसके बाद वह नीचे उतरकर अपने स्वर्णभूषित रथ पर अश्वत्थामा के सामने खड़ा हो गया। उस समय वह तेजस्वी राक्षस पृथ्वी पर खड़े हुए अत्यन्त भयंकर कज्जल-गिरि के समान जान पड़ा। उस समय द्रोणकुमार ने लोहे के कवच धारण करके आये हुए भीमसेन पौत्र अंजनपर्वा को उसी प्रकार मार डाला, जैसे भगवान महेश्वर ने अन्धकारसुर का वध किया था।

                                                                                                                                  धन्यवाद !

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