अश्वत्थामा महाबलशाली या पांडव के पुत्र का हत्यारा
अश्वत्थामा महान आचार्य द्रोणाचार्य का पुत्र था उसने महाभारत के युद्ध में कौरवो का साथ दिया था.
अश्वत्थामा के बारे में एक बात प्रचलित है की जिस समय अश्वत्थामा ने अपने पिता द्रोण की छलपूर्वक मृत्यु का समाचार सुना ,उसने तुरंत क्रोध में आकर पांडव सेना पर नारायणास्त्र का संधान कर दिया था.
नारायणास्त्र के चलने के अगले ही क्षण आकाशमार्ग से आग के विस्फोटक गोले पांडव सेना पर गिरने लगे। पांडव सेना का भयंकर विनास होने लगा।
इस अस्त्र का निवारण भीष्म,द्रोण,श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण पुत्र प्रद्युम्न के अलावा कोई और नही जानता था।
पांडव सेना का विनाश होता देख श्रीकृष्ण ने कहा-
शीघ्रं नश्यति शस्त्राणि वाहेभ्यश्चवरोहत।
एष योगोअ्त्र विहिता प्रतिशेधे महात्मना।।
अर्थात
हे योद्धाओं! अपने अस्त्र शस्त्र नीचे डाल दो और अपनी सवारियों से नीचे उतर जाओ। महात्मा नारायण (अस्त्र के आविष्कारकर्ता) ने इससे बचने के लिए यही उपाय निश्चित किया है।तुम सब लोग हाथी घोड़ों और रथों से उतरकर नीचे जमीन पर खड़े हो जाओ ,इस प्रकार भूमि पर निहत्थे खड़े हुए तुम लोगों को यह अस्त्र नही मार सकेगा।
इसमें क्या वैज्ञानिकता थी। यदि इस अस्त्र के समक्ष हथियार डाल दिये जाएँ तो यह निष्प्रभाव हो जाता था और अस्त्र-शस्त्र न डालकर इसका विरोध किया जाए तो यह सम्पूर्ण शक्ति के साथ केवल उसी व्यक्ति पर आक्रमण करता था। जो लोग समर्पण कर देते थे [ अस्त्र-शस्त्र डाल देते थे], उन्हें यह अस्त्र हानि नहीं पहुंचाता था। अस्त्र जड़ होते हुए भी चेतन मनुष्य के समान व्यवहार करता था,
और अश्वत्थामा, द्रोणाचार्य के पुत्र के पास एक चमत्कारिक मणि थी जिसके बल पर वह शक्तिशाली और अमर हो गया था। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। अश्वत्थामा के पास शिवजी द्वारा दी गई कई शक्तियां थीं। वे स्वयं शिव का अंश थे।
जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। इस मणि के कारण ही उस पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था।
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